रात की चादर ओढ़े
चुपचाप सोयी है
वो पगडण्डी जो शहर से
गाँव की ओर आती है
पगडण्डी पर उगी घासें
नाम हैं, भीगी हैं
जैसे सुबक कर
कोई चुप हो गया हो
बहुत रोई होगी उस
राहगीर के लिए जो लौट के न आया
उसका घर छुटा
वो भीतर से टुटा
सन्नाटा है पसरा
पगडण्डी अभी भी
चुप है सुबक रही है ...... इंतज़ार में ..
चुपचाप सोयी है
वो पगडण्डी जो शहर से
गाँव की ओर आती है
पगडण्डी पर उगी घासें
नाम हैं, भीगी हैं
जैसे सुबक कर
कोई चुप हो गया हो
बहुत रोई होगी उस
राहगीर के लिए जो लौट के न आया
उसका घर छुटा
वो भीतर से टुटा
सन्नाटा है पसरा
पगडण्डी अभी भी
चुप है सुबक रही है ...... इंतज़ार में ..
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