शुक्रवार, 29 मार्च 2013
"बैठक"
याद है
वो अपना दो कमरे का घर
जो दिन में
पहला वाला कमरा
बन जाता था
बैठक !!
बड़े करीने से लगा होता था
तख्ता, लकड़ी वाली कुर्सी
और टूटे हुए स्टूल पर रखा
होता था "उषा" का पंखा .....
आलमारी में होता था
बड़ा सा "मर्फी" का रेडियो ..
वही हमारे लिए टी० वी० था
सी० डी० था और था होम थियेटर ...
कूदते फुदकते हुए ..
कभी कुर्सी पर बैठना
कभी तख्ते पर चढ़ना ..
पापा के गोद में मचलना ..
दिन भर
कोई न कोई
आता ही रहता था ...
मम्मी लगातार चाय बनाने में
व्यस्त रहती थी..
बहनों के द्वारा बनाई गयी पेंटिंग जो..
"बैठक" की शान हुआ करती थी ...
सारा दिन कोई न कोई तारीफ़ ...
करता ही रहता था..
वो चाहे आयूब चाची हों.. या सुलेमान मास्टर ...
समय बिता ...
सपने कुछ बढे
"बैठक" को सँवारने मैं ...
हम सभी कुछ न कुछ करते ही
रहते थे..
मम्मी की पुरानी साड़ियों..
से बनाये परदे ..
इसी का नतीजा थे..
और इस तरह सजने, सँवरने ...
लगी हमारी प्यारी "बैठक" ...
सुन्दर "बैठक" के सपने ...
बनते और पनपते रहे..
उन सपनों के जंजाल को लिए ..
न जाने कितने वर्ष यूँ हीं बीत गए ...
समय के साथ फेंगशुई, वास्तु की ..
बारीकियां भी पढता रहा, गुनता रहा..
सजाता रहा अपनी .. .
"बैठक" ...
अब वो लकड़ी वाली कुर्सी
की जगह कलात्मक गद्देदार ...
सोफे हैं,
सुन्दर सी शीशे की मेज है..
वास्तु के अनुसार ..
मछली का एक्वेरियम भी लगा है..
और तो और ...
मम्मी, पापा की सुन्दर फोटो ...
भी "बैठक" मैं घुसते सामने नहीं ..
लगा सका..
वास्तु के दोष के कारण..
वो भी एक तरफ दिवाल पर चिपकी है..
जो लगातार यह सब देख रही है..
बहुत दुःख है..
जिसने हमें इस काबिल करा..
उसकी फोटो भी सामने नहीं
लगा सका.....
"बैठक" को बहुत ही...
नजाकत से रखा है...
चमचमाता हुआ सफ़ेद फर्श है...
बहुत करीने से सफाई दोनों टाइम ..
होती है..
तमाम चीजें बड़ी नफासत से..
रखी हुयी हैं..
पर नहीं आता है अब कोई मेहमान !!
कोई आता भी है..
तो बहुत जल्दी मैं ...
दरवाजे की दहलीज़ से लौट जाता है..
खड़े - खड़े विदा कर दिया जाता है..
महल जैसी "बैठक" में ...
बैठने उठने के
नियम तय किये गए हैं..
हर किसी को थोड़े ही बैठाया जाता है..
"बैठक" में ..
उन गद्देदार सोफों पर..
इसलिए ..
न सजते हैं काजू अब प्लेटों में ..
न ट्रे मैं चाय सजती है ..
और "बैठक" हमारी बंद ही रहती है..
मिटटी के डर से ..
कहीं गन्दी न हो जाये "बैठक" ..
वो अपना दो कमरे का घर
जो दिन में
पहला वाला कमरा
बन जाता था
बैठक !!
बड़े करीने से लगा होता था
तख्ता, लकड़ी वाली कुर्सी
और टूटे हुए स्टूल पर रखा
होता था "उषा" का पंखा .....
आलमारी में होता था
बड़ा सा "मर्फी" का रेडियो ..
वही हमारे लिए टी० वी० था
सी० डी० था और था होम थियेटर ...
कूदते फुदकते हुए ..
कभी कुर्सी पर बैठना
कभी तख्ते पर चढ़ना ..
पापा के गोद में मचलना ..
दिन भर
कोई न कोई
आता ही रहता था ...
मम्मी लगातार चाय बनाने में
व्यस्त रहती थी..
बहनों के द्वारा बनाई गयी पेंटिंग जो..
"बैठक" की शान हुआ करती थी ...
सारा दिन कोई न कोई तारीफ़ ...
करता ही रहता था..
वो चाहे आयूब चाची हों.. या सुलेमान मास्टर ...
समय बिता ...
सपने कुछ बढे
"बैठक" को सँवारने मैं ...
हम सभी कुछ न कुछ करते ही
रहते थे..
मम्मी की पुरानी साड़ियों..
से बनाये परदे ..
इसी का नतीजा थे..
और इस तरह सजने, सँवरने ...
लगी हमारी प्यारी "बैठक" ...
सुन्दर "बैठक" के सपने ...
बनते और पनपते रहे..
उन सपनों के जंजाल को लिए ..
न जाने कितने वर्ष यूँ हीं बीत गए ...
समय के साथ फेंगशुई, वास्तु की ..
बारीकियां भी पढता रहा, गुनता रहा..
सजाता रहा अपनी .. .
"बैठक" ...
अब वो लकड़ी वाली कुर्सी
की जगह कलात्मक गद्देदार ...
सोफे हैं,
सुन्दर सी शीशे की मेज है..
वास्तु के अनुसार ..
मछली का एक्वेरियम भी लगा है..
और तो और ...
मम्मी, पापा की सुन्दर फोटो ...
भी "बैठक" मैं घुसते सामने नहीं ..
लगा सका..
वास्तु के दोष के कारण..
वो भी एक तरफ दिवाल पर चिपकी है..
जो लगातार यह सब देख रही है..
बहुत दुःख है..
जिसने हमें इस काबिल करा..
उसकी फोटो भी सामने नहीं
लगा सका.....
"बैठक" को बहुत ही...
नजाकत से रखा है...
चमचमाता हुआ सफ़ेद फर्श है...
बहुत करीने से सफाई दोनों टाइम ..
होती है..
तमाम चीजें बड़ी नफासत से..
रखी हुयी हैं..
पर नहीं आता है अब कोई मेहमान !!
कोई आता भी है..
तो बहुत जल्दी मैं ...
दरवाजे की दहलीज़ से लौट जाता है..
खड़े - खड़े विदा कर दिया जाता है..
महल जैसी "बैठक" में ...
बैठने उठने के
नियम तय किये गए हैं..
हर किसी को थोड़े ही बैठाया जाता है..
"बैठक" में ..
उन गद्देदार सोफों पर..
इसलिए ..
न सजते हैं काजू अब प्लेटों में ..
न ट्रे मैं चाय सजती है ..
और "बैठक" हमारी बंद ही रहती है..
मिटटी के डर से ..
कहीं गन्दी न हो जाये "बैठक" ..
मंगलवार, 19 मार्च 2013
अनाम रिश्ते
कुछ रिश्ते अनाम होते हें
बन जाते हें
यूँ हीं, बेवजह, बिना समझे
बिना देखे, बिना मिले ....
महसूस कर लेते हें एकदूजे को
जैसे हवा महसूस कर ले खुशबु को
मानो मन महसूस कर ले आरजू को
मानो रूह महसूस कर ले बदन को
मानो बादल महसूस कर ले गगन को
मानो ममता महसूस कर ले माँ को
कैसे बन जाते हें ...
ये अनायास ... अजनबी रिश्ते
पता भी नहीं चलता ....
जब तक दूर नहीं होते हमसे ....
और तब...
सवाल उठते हें जहन मैं
वजूद पूछते हें रिश्तों का
क्या ये रिश्ता .. पिछले जन्म का है ???
और अगर नहीं ?
तो क्यूँ खींचता है ?
जैसे लोहा खींचे चुम्बक को ...
जज्बात शायद वजह होगी... !!
पर, इतना जज्बाती भी क्यूँ होता है कोई....
कि, जिसको देखा नहीं, सुना नहीं, छुआ नहीं...
महसूस होता है हर कहीं ..
वो एकाएक क्यूँ इतना अज़ीज़ हो जाता है... ?
ये रिश्ता आखिर क्या कहलाता है..??
बोलो ...., बोलो ...न.....
बन जाते हें
यूँ हीं, बेवजह, बिना समझे
बिना देखे, बिना मिले ....
महसूस कर लेते हें एकदूजे को
जैसे हवा महसूस कर ले खुशबु को
मानो मन महसूस कर ले आरजू को
मानो रूह महसूस कर ले बदन को
मानो बादल महसूस कर ले गगन को
मानो ममता महसूस कर ले माँ को
कैसे बन जाते हें ...
ये अनायास ... अजनबी रिश्ते
पता भी नहीं चलता ....
जब तक दूर नहीं होते हमसे ....
और तब...
सवाल उठते हें जहन मैं
वजूद पूछते हें रिश्तों का
क्या ये रिश्ता .. पिछले जन्म का है ???
और अगर नहीं ?
तो क्यूँ खींचता है ?
जैसे लोहा खींचे चुम्बक को ...
जज्बात शायद वजह होगी... !!
पर, इतना जज्बाती भी क्यूँ होता है कोई....
कि, जिसको देखा नहीं, सुना नहीं, छुआ नहीं...
महसूस होता है हर कहीं ..
वो एकाएक क्यूँ इतना अज़ीज़ हो जाता है... ?
ये रिश्ता आखिर क्या कहलाता है..??
बोलो ...., बोलो ...न.....
सोमवार, 18 मार्च 2013
रविवार, 17 मार्च 2013
ख्वाब
रोते, हँसते, गाते मैंने देखा है
उसे अपने में पलते मैंने देखा है....
हमारी दुआओं में उसकी जिंदगी रोशन है....
उसकी आदतों को खुद में ढलते मैंने देखा है...
न जाने कौन सा स्वप्न आवाज देता है ...
मैंने अपने आपको नींदों में चलते देखा है..
मुझे मालूम है तेरी दुआएं साथ रहेंगी ...
मुश्किलों को हांथों मलते मैंने देखा है...
मेरी खामोशियों में तैरती है तेरी आवाजें ....
मैंने अपना दिल मचलते देखा है.....
बदल जायेगा सब कुछ .. बादल छटेगा ....
बुझी आँखों से "ख्वाब" जलते मैंने देखा है..
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