तमाम गैर जरुरी चीजें..
गुम हो जाते हैं घर से चुपचाप...
हमारी बेखबर नज़रों से...
जैसे मम्मी का मोटा चश्मा..
पापा जी का छोटा रेडियो...
उन दोनों के जाने के बाद..
गुम हो जाता है कहीं...
पुराने जूते, स्याही वाला पेन, पुराना कल्याण (किताब)...
हमारी जिंदगी की अंधी गलियों से...
हर जगह पैर फैलाकर, कब्ज़ा करती जाती हैं...
हमारी जरूरतें, लालसाएं...
आलमारी मैं पीछे खिसकते जाती हैं..
पुरानी डायरी, जीते हुए कप...
मम्मी का भानमती का पिटारा..
सुई धागे वाला डिब्बा...
शायद....
किसी भूले हुए किताब मैं..
सहेज के रखे हों..
गुलाब के फूल, मोर के पंख...
तितली के पर...
या अभी किसी किताबों के ...
बिच रखे हों सुरक्षित ...
मुहर लगे डाक टिकट...
पुराने पत्र...
और पच्चीस पैसे का सिक्का...
इस भीड़ भाड़ के मेले में ..
एक एक करके सभी चीजें ..
पीछे छुटती जाती है....
हमसे...
बचपन के दोस्त, जीती हुयी क्रिकेट की गेंद...
लुटी हुयी पतंगे, चंदामामा(किताब) की किताबें ....
मकानों के कंधे पर सवार ...
टीवी का एंटीना ...
अब नहीं उलझता पतंग उड़ाने में..
और तो और...
अब कोई नहीं देखता चंदामामा को ...
अब नहीं पसरती आँगन में..
अलसाई ठण्ड की धूप ...
धुंधले होते जाते हैं ..
धीरे धीरे ये सारे चटख रंग...
सपनों के रंग बदलते जाते हैं ...
एक एक करके ...
बदलते मौसम के साथ ...
और एक एक करके ..
आँखों की दहलीज से बाहर ..
चले जाते हैं ..
सर झुकाए हुए..
गुजरते मौसम की तरह ....
हम भूल जाते हैं ....
वो लेमनचूस(टॉफी), खट्टी इमली का चटपटा स्वाद ...
हमें घेर कर रखा है टीवी का कर्कश शोर..
और हमारे सकरे जीवन के दरवाजे को ..
बजा कर लौट जाती है ...
न जाने कितनी पूनम की रातें..
सुबह सुबह की भीगी औंस...
लाल घेरे मैं कैद रहती है तारीख...
और बदल जाते है ये कलेंडर..
गुम हो जाते हैं घर से चुपचाप...
हमारी बेखबर नज़रों से...
जैसे मम्मी का मोटा चश्मा..
पापा जी का छोटा रेडियो...
उन दोनों के जाने के बाद..
गुम हो जाता है कहीं...
पुराने जूते, स्याही वाला पेन, पुराना कल्याण (किताब)...
हमारी जिंदगी की अंधी गलियों से...
हर जगह पैर फैलाकर, कब्ज़ा करती जाती हैं...
हमारी जरूरतें, लालसाएं...
आलमारी मैं पीछे खिसकते जाती हैं..
पुरानी डायरी, जीते हुए कप...
मम्मी का भानमती का पिटारा..
सुई धागे वाला डिब्बा...
शायद....
किसी भूले हुए किताब मैं..
सहेज के रखे हों..
गुलाब के फूल, मोर के पंख...
तितली के पर...
या अभी किसी किताबों के ...
बिच रखे हों सुरक्षित ...
मुहर लगे डाक टिकट...
पुराने पत्र...
और पच्चीस पैसे का सिक्का...
इस भीड़ भाड़ के मेले में ..
एक एक करके सभी चीजें ..
पीछे छुटती जाती है....
हमसे...
बचपन के दोस्त, जीती हुयी क्रिकेट की गेंद...
लुटी हुयी पतंगे, चंदामामा(किताब) की किताबें ....
मकानों के कंधे पर सवार ...
टीवी का एंटीना ...
अब नहीं उलझता पतंग उड़ाने में..
और तो और...
अब कोई नहीं देखता चंदामामा को ...
अब नहीं पसरती आँगन में..
अलसाई ठण्ड की धूप ...
धुंधले होते जाते हैं ..
धीरे धीरे ये सारे चटख रंग...
सपनों के रंग बदलते जाते हैं ...
एक एक करके ...
बदलते मौसम के साथ ...
और एक एक करके ..
आँखों की दहलीज से बाहर ..
चले जाते हैं ..
सर झुकाए हुए..
गुजरते मौसम की तरह ....
हम भूल जाते हैं ....
वो लेमनचूस(टॉफी), खट्टी इमली का चटपटा स्वाद ...
हमें घेर कर रखा है टीवी का कर्कश शोर..
और हमारे सकरे जीवन के दरवाजे को ..
बजा कर लौट जाती है ...
न जाने कितनी पूनम की रातें..
सुबह सुबह की भीगी औंस...
लाल घेरे मैं कैद रहती है तारीख...
और बदल जाते है ये कलेंडर..
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