बुधवार, 10 अप्रैल 2013

प्रेम

प्रेम का वह अनुभव ऐसे अन्तरिक्ष में घटा  जहाँ शब्दों का प्रवेश नहीं हो सकता था,  उसके गतिशील जीवन में सबसे स्थाई भाव वही बना रहा, उठते-बैठते  वह यही सोचता था उस अतीत में क्या था ?


वह बाहर निकल आया ... फ़रवरी का अंतिम सप्ताह चल रहा है .. पहाड़ों के निचे सूखे पत्ते झर रहे हैं... लाल, पीले और मटमैले  पत्ते हवा के साथ सरकते हुए किनारे पर इकट्ठे हो गए थे! वादी सूखे पत्तों में सांस ले रही थी!  धीरे - धीरे दिन गर्म होने लगा था .... भीतर कूदते प्रश्नों  की बैचेनी, स्मृतियों में न जाने कितनी छवियाँ  और सपने थे, उन्ही  से बुना गया था जीवन, आज परछाइयां सी घेर रही थी कभी लगता था कि जीवन की ट्रेन में धीमे क़दमों से चढ़ने की कोशिश नाकामयाबी के कारण थे, पता नहीं जीवन को अपनी शर्त पर जिए जाने से अलग क्या हो सकता है ... "प्रेम" ..... !

अब उम्र ढलने लगी है, धुप पिघलने लगी है अतीत को फिर से तहाने और खोलने से क्या फायदा ? उसे लग रहा था  वह दर्पण के सामने खड़ा है और उसके  अतीत के सफे सामने खुलते जा रहे हैं .. वह देख रहा है अपने हर पल जीवन के.. !

मां बहुत बीमार थी,  बहुत छुब्ध थी  वह कह रही थी, अब में  अपने अंतिम पड़ाव पर जा रही हूँ मेरे सामने  तुम अपनी शादी कर लो  तो अच्छा हो अपनी जिद्द  छोड़ दो! में अपनी आखरी जिम्मेदारी निभाना चाहती हूँ ... तुम्हारे चाचा एक प्रस्ताव लेकर आये हैं तुम अब अपनी शादी कर लो..!

मैंने नकार दिया ...

मां विचलित हो गयी, उसने मुझे समझाया, देख बेटा तेरे न बाप हैं, और न ही भाई-बहन हैं तेरा साथ देने को, जो कुछ भी हूँ में ही हूँ,  और तुझे पता है कि में कब तक रहूंगी  मान जा .. तू बता क्या परेशानी है तुझको ...!

मां को मैंने "शिप्रा" के बारे संक्षेप में बताया कि वह दो साल बाद आएगी  तब में शादी करूँगा...

मां बहुत बैचैन हो गयी .. दो वर्ष ... !!!!  क्या कह रहा है तू .. इतना लम्बा समय पता नहीं में रहूँ न रहूँ .. मेरा स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन बिगड़ता जा रहा है, तुझे मेरी परिस्थिति समझनी चाहिए .. कैसे होगा मेरे मरने के बाद..... मैंने मां को समझाया  आप ऐसा क्यूँ सोचती हो... आप बिलकुल ठीक हो जाओगी और में अकेला कहाँ हूँ.. इतना बड़ा इंस्टिट्यूट चल रहा है.. इतने सारे बच्चे हैं .. इतनी बड़ी संस्था है...  सभी तो हैं .. यहाँ क्या कमी है  में अकेला कैसे हो सकता हूँ.. !

मां आश्वस्त नहीं हुयी .. .. मगर निरुत्तर हो गयी .... पापा के देहांत के बाद  सब कुछ गड़बड़ हो गया था.. सभी  अलग थलग  हो गए थे  में और मां  एक साथ "मंदारि" आ गए थे .. मंदारी पहाड़ी इलाका है  बहुत ऊँचे- ऊँचे पहाड़ हैं  जो कितने शांत लगते हैं जैसे कुछ  बोलना चाहते हो मगर न बोलना इनकी मजबूरी हो.. !  में यहाँ आकर कई पत्र  भेजे शिप्रा को मगर किसी का जवाब नहीं आया एक दिन अचानक मुझे पता चला कि वो जर्मनी चली गयी है .. दो वर्षों के लिए परन्तु न ही कभी पत्र आया न ही  कभी फ़ोन ... पर मुझे यह विश्वास था कि एक दिन वो जरुर आएगी.. ..!

एक दिन अचानक मां की तबियत ख़राब हुयी .. उनके चेहरे पर जैसे शब्द ठहर गए थे .. सुनी आँखों में चिंता की हाहाकिरी थी रुंधे हुए स्वर में वे शब्दों को जोड़ रही थी ... तू शादी कर ले.. जिद्द मत कर ... उनकी साँसे उखड रही थी .. वह विचलित हो रही थी ....  पिली सी रौशनी में अस्पताल के बिस्तर पर निस्पंद पड़ी मां की दृष्टी ठहर गयी थी .. उसने अपनी गर्दन नीची कर ली थी .. शायद  उसके विश्वास को ठेस लगा था .. मृत्यु के कगार पर खड़े अंतिम सांस लेती मां  के साथ  यह न्याय नहीं था ... और हो भी नहीं सकता था.. ! पर आज इस सच्चाई को बताना भी मेरे लिए जरुरी हो गया था.. नहीं तो में मां  के विश्वास के साथ धोखा देता.. इसी दुविधा की लाचारी से मेरा चेहरा धुंधला गया था... !

तेरह दिन तक जलने वाले दिप  की लौ तले तेरही की रस्म के बाद आने वोलों की भीड़ भी थम गयी थी .... सन्नाटा  छा गया था ..  उस थमे हुए पल में मां की छाया  सदा के लिए  अदृश्य हो गयी थी..  मैंने अपने आप को धीरे धीरे समेटा और अपने जीवन की बागडोर सँभालने की कोशिश शुरू करी...!
मैंने एकांत को सार्थक करने की प्रक्रिया  शुरू कर दी थी.. मां का सपना भीतर उतरने लगा था...! इंस्टिट्यूट चल रहा था..  बगल वाली जमीं खरीदकर  मैंने एक अस्पताल खुलवा दिया था.. और उसी में रहने लगा था... !

पूरा समय पढ़ाने में तथा जो बचा रोगियों की देखभाल में गुजर जाता था..  मां कहती थी .. अपनी इच्छाएं नहीं करनी चाहिए नहीं तो जीवन दरिद्र हो जाता है .. इच्छाओं  को दिशा देनी चाहिए  इच्छाएं बहते हुए पानी के सामान होती हैं ... पानी रुकेगा  तो सड़ांध मारेगा.. इच्छा रुकेगी तो कुंठा बनाएगी ...!

ऋतुयो के परिवर्तन में, प्रकृति के क्रम से बसंतो और मुरझाते पतझड़ों में, बरसते बादलों , पहाड़ों के शिखर पर जमती पिघलती बर्फ और  बहती नदियों में समय भागता रहा ... और एक दिन अचानक  मेरी मुलाकात शिप्रा से हो जाती है.. में एक निमंत्रण पर हैदराबाद गया  और जिससे मिलना था उसके घर के सामने वाले घर  पर जाकर मैंने कॉल बेल बजाई पता पूछने के लिए ... सामने शिप्रा को देखकर में अवाक खड़ा रह गया .. जैसे मेरे निचे की जमीन सरक गयी हो...!

"तुम यहाँ ??  यह सवाल तो उसका होना चाहिए था ..... मैंने सोचा .. अपने भीतर सीढियाँ उतरती - चढ़ती वह खड़ी थी .. "हाँ"  अभी पढ़ाई पूरी करके आयी हूँ.. उसने कहा... !

लेकिन मेरी चिट्ठियां ?? वह फिर लडखडाई ..  मैंने पूछा....

"तुम्हारी चिट्ठियाँ"  ? उसने बड़े आश्चर्य से देखा ... एक भी नहीं मिलीं ...

लेकिन मैंने तो तुम्हारे चाचा के पते पर भेजी थीं..  में जैसे स्वप्न में चल रहा था .. उनकी पोस्टिंग तो पूना हो गयी थी.. .. उसने कहा...!

मेरे अन्दर एक तूफ़ान सा उठने लगा  था..

वो मुझे घर के अन्दर ले गयी .. वह समझ नहीं पा रही थी .. कि वह क्या करे.. कैसे बैठाये .. क्या खिलाये.. समय ठहर सा गया था..  घर का जायजा लेते हुए आँखे चारों और घूम रही थी.. मेरी नज़र  सामने  लगी फोटो  पर टिक गयी ....

स्मृतियों के गलियारे  से निकलकर   वह अविचलित वर्तमान में खड़ी थी.. .. वह अपने  पर संतुलन  करके बोली यह फोटो  मेरे बेटे का है.. !

तुम्हारे पति कहाँ है.. ?  मैंने पूछा...  लांस एजेन्स में डॉक्टर हैं... वहीँ रहते हैं...

में एकदम रुक सा गया था.. जैसे लगा समय थम गया हो ..  फिर अपने को सँभालते हुए कहा.. शिप्रा बधाई हो.. तुमको तुम्हारी शादी भी हो गयी.. तुम्हारा एक बच्चा भी है..  और ये अलग बात है.. कि मैंने तुम्हारा इंतजार अभी तक करा..  वो रो पड़ी..  उसने कहा..  में अपने पति को छोड़ सकती हूँ.. वो यहाँ आते भी नहीं .. बस तुम हाँ करो .. तो में सबकुछ छोड़ सकती हूँ.. ..!

नहीं .. शिप्रा .. अब शायद संभव नहीं है तुम्हारे नहीं मेरे कारण  से ये अब संभव नहीं है....

उसके चेहरे का रंग बदरंग हो रहा था..  वह बार-बार  समझा रही थी.. अनजाने में हुयी गलतियों की सजा इतनी कड़ी नहीं हो सकती .. गलतियों को सुधारा भी जा सकता है.. उसने कहा... !

यह गलती नहीं है.. शिप्रा यह हमारी नियति है.. ऐसा ही मान लो.. नियति को भी सतर्क कर्मों से बदला जा सकता है.. . पता नहीं में उदासीन था....

मेरे अन्दर कोई इच्छा नहीं बांध सकी .. यहाँ तक आने के बाद लौटना संभव नहीं लग रहा था.. ढलान से ढुलकते पत्थर की तरह जिंदगी ढुलक रही थी.. अब कहीं रुकने को मन नहीं कर रहा था.. !

थक हार कर वह मुझे समझाना बंद कर दी ... मुझे वापस आना था.. मैंने अपना कार्यक्रम बताया वो .. फिर मुझे समझाई मगर मेरी जिद्द के सामने वो कुछ नहीं कर सकी.. में चला आया वहीँ.. इंस्टिट्यूट, हॉस्पिटल में.. !  वो अब कभी कभी मेरे हॉस्पिटल में आ जाया करती है.. और कभी कभी मुझे शादी को भी कहती है.. मेरा जवाब होता है.  कि शिप्रा  मुझे मेरे अन्दर हमेशा हरा भरा  सा लगता है..  प्रेम के लिए थोड़े समय का स्वाद और स्मृतियों का इन्द्रधनुष  हमेशा  आहलादित करता रहता है..  उसे मत छीनों ... !

वो एक दिन हमेशा हमेशा के लिए जर्मनी चली गयी .. अब कोई नहीं है.. मेरा  अपनी डायरी निकाली  और  लिखने लगा...

अब में कहानियां, कवितायेँ नहीं लिखता,  समय नहीं मिलता इसलिए नहीं .. वरन हॉस्पिटल के जीवन की त्रासद से त्रासद कहानियों से  ऐसा रूबरू होता हूँ..  मेरे आसपास तकलीफ, दुःख, दर्द, पीड़ा से पस्त और बदहाल जीवन की अनेक कहानियां  बिखरी पड़ी हैं..  जो मुझे झिन्झोरती हैं..  लाइलाज बिमारिओं से लड़ते हुए मरीजों  की कहानियां सामने दिख रही हैं..  में नहीं जानता मैंने क्या सोचा और क्या पाया..  क्या जोड़ा और क्या घटाया .. .. और तुम तो  जानती हो..  गणित हमारी हमेशा से कमजोर रही है...,  में आज भी वही हूँ.. जो हमेशा से  था..  अपनी इच्छा से.. अपनी इच्छा से..