शुक्रवार, 25 मार्च 2011

अचानक

क्या हुआ, कैसे हुआ
या हुआ अचानक ..
देखते देखते बदल गया
स्वयं का कथानक
परछाईओं ने भी छोड़ दिए
अब तो अपने दामन ..
परिंदों ने भी बंद किये है
स्वयं को कोलाहल
पहचानती थी ईंट वह
जो ठोकर खाकर भटक गयी
पथ पर रहने के बजाये
पथ का रोड़ा बन गयी ...
अभिलाषाओं को कुंदन हुआ
आशाओं का तुषार पात
तड़ित दमकी और गिर पड़ी
उठकर देखा तो मौत खड़ी ...
उसने भी नकार दिया ..
पहचानने से इंकार किया ..
आशाओं को बुझा दिया ..
ले जाने से इंकार किया ..
क्या हुआ, कैसे हुआ या हुआ अचानक.......

बुधवार, 16 मार्च 2011

याद

ये शाम, सुहावना मौसम
तेरी कमी को बता जाता है,
हर शख्श मेरे चेहरे को देख,
तुझे पढ़ के चला जाता है,
एक ठंडी हवा का झोंका भी,
दिल मैं तुझे धड़का जाता है,
तू भी आता है ... घटा की तरह ...
और बरस के चला जाता है....

सोमवार, 14 मार्च 2011

मन

हमेशा वह नहीं होता
जो होता है मन मैं
दाना डालता हूँ गौरेया को
खाता कौन है ......
बड़े सहेज कर ये ईमारत
खडी करी है हमने
देखना है ..
रहता कौन है ?
सोचता हूँ बिना कहे वो सब
समझ जायेगा
मगर समझता कौन है ?
किये हैं मैंने बहुत उपाए
जीने के लिए
देखना है अब जीता कौन है ?

सोमवार, 7 मार्च 2011

आज की बात

आज हवाओं का रुख कुछ थम सा गया है
उसको फिर से कुछ याद आ गया है
धुप मैं वो तपन भी नहीं है
फिजां मैं वो लहर भी नहीं है
यूँ तो यह बात पुरानी है
जख्म तो नया है पर टीस पुरानी है
चेहरे लेकर चलते है कई लोग यहाँ
अब उनको अपना कहना यार बेमानी है
आंगन की घासें वही हरी भरी है
पर जगह जगह नागफनी उग रही है
सुनी पड़ी है हर कब्र इन दिनों
लोशों को डर है कैद न हो जाएँ इन दिनों....

रविवार, 6 मार्च 2011

बैठक

याद आता
है वो अपना दो कमरे को घर
जो दिन मैं
पहला वाला कमरा
बन जाता था
बैठक
बड़े करीने से लगा होता था
तख्ता, लकड़ी वाली कुर्सी
और टूटे हुए स्टूल पर रखा
होता था उषा का पंखा,
आलमारी मैं होता था
बड़ा सा मर्फी का

रेडियो

वही हमारे लिए टी.वी था

सी डी था और था होम थियेटर

कूदते फुदकते हुए

कभी कुर्सी पर बैठना

कभी तख्ते पर चढ़ना

पापा की गोद मैं मचलना

दिन भर

कोई न कोई

आता ही रहता था

मम्मी लगातार चाय लाने मैं

व्यस्त रहती थी

बहनों द्वारा बनाई गयी

पेंटिंग जो

बैठक की शान हुआ करती थी

सरे दिन कोई न कोई तारीफ

करता ही रहता था

चाहे वो अयूब चाची या सुलेमान मास्टर
समय बीता ...........
सपने कुछ बढे

बैठक को सँवारने

मैं हम कुछ न कुछ करते ही
रहते थे
के जंजाल के

के सँवरने लगी .....
सुन्दर बैठक के सपने
बनते और पनपते रहे
उन सपनों के जंजाल
को लिए न जाने कितने वर्ष
यूँ ही बीत गए
समय के साथ फेंगशुई, वास्तु की
बारीकियां भी पढता रहा गुनता रहा
सजाता रहा अपनी
बैठक,
अब वो लकड़ी वाली कुर्सी
की जगह अलात्मक गद्देदार
सोफे हैं, सुन्दर सी मेज है
वास्तु के अनुसार
कोने मैं फिश एक्वेरियम भी लगा है
और तो और
मम्मी पापा की सुन्दर फोटो
भी बैठक मैं घुसते, सामने नहीं
लगा सका
वास्तु के दोष के कारन
वो भी एक तरफ दीवाल पर चिपकी है
जो लगातार यह सब देख रही है
बहुत दुःख है
जिसने हमें इस काबिल करा
उसकी फोटो भी सामने नहीं
लगा सका ............
बैठक को बहुत ही
नजाकत से रखा है
चमचमाता हुआ सफ़ेद फर्श है
बहुत करीने से सफाई दोनों टाइम होती है
तमाम चीजें बड़ी
नफासत से राखी हुयी है
पर नहीं आता है अब
कोई मेहमान
समय की कमी के
कारण....
कोई आता भी है
तो बहुत जल्दी मैं
दरवाजे से ही लौट जाता है
खड़े खड़े
विदा कर दिया जाता है
महल जैसी बैठक मैं
बैठने उठने के
नियम तय किये गए हैं
हर किसी को
थोड़े ही बैठाया जाता है
बैठक मैं
उन गद्देदार सोफों पर
इसलिए
न सजते हैं काजू
अब प्लेटों मैं
न ही ट्रे मैं चाय सजती है
और बैठक हमारी बंद ही रहती है
मिटटी के दर से
कहीं गन्दी न हो जाये
बैठक................