शनिवार, 19 नवंबर 2011

रंग ...


जीवन की आपाधापी मैं ...


सृष्टि के अनुपम चित्र मैं...


उस महान चित्रकार की..


तुलिका से...


ख़त्म होता जा रहा रंग....


बेस्वाद होते टमाटर..


रोज चटखीले लाल नज़र आते हैं..


बैगनी रंग ...


और चटकदार होता जा रहा...


मगर स्वाद ख़त्म हो रहा है बैंगन से...


अधरों पर मोहित मुस्कान लिए..


बाला बैठी है चटकदार कपडे पहने..


नील पोलिश का रंग भी अजीब है..


बेच रही है खोखली मुस्कान...


और सोता जा रहा रंग...


जीवन का गम, ख़ुशी...


सब एक रंग मैं होता जा रहा है.


सफ़ेद रंग भी अब सफ़ेद न रहा..


लाल चोला अब लाल न रहा..


और जीवन का वास्तविक रंग खोता जा रहा..


उदासी, ख़ुशी, उल्लास..


देखनी है तो....


चले आओ, बहुत रंगीन..


चटकदार माल बने हैं..


जिनमे रंग तो हैं.. पर रंग नहीं है...





शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

"भावना"



जिंदगी का फलसफा...


कुछ कहा कुछ अनकहा...


हंसती, खिलखिलाती अपनी "भावना"....


कुछ नए अंदाज में आवाज देकर करना मामा निमस्ते...


याद आती है अपनी वो "भावना"...


"भावना" अपनी भावना कह न सकी..


हम सब को छोड़ गयी अपनी प्यारी "भावना"...


जिंदगी यूँ ही गुजरी रोज की तरह..


सबेरा हुआ, पंक्षी चहचहाने लगे...


सभी अपने में व्यस्त होने लगे..


मगर न रही अपनी प्यारी "भावना"...


बहुत याद आती है...


हम सब की अपनी प्यारी वों "भावना"....


जिंदगी का फलसफा...


कुछ कहा कुछ अनकहा...


भावना... अपनी प्यारी "भावना"....


शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

बहुत दिनों बाद

आज बहुत पुरानी...


किताब पर अंगुलियाँ चलाईं ..

जाने कहाँ से एक आवाज ..

चली आयी..

आवाज एक भर्राई सी..

कुछ जानी पहचानी..

कुछ बरसों पुरानी..

एक हंसी जो दूर से ...

हंसी जा रही थी..

कितनी बातें अचानक..

उसी आवाज में..

ख्याल में, अंदाज में, आ गयी थी..

दिल में उठा था दर्द बहुत दिनों बाद..

जैसे बच्चा उठा हो सोने के बाद..

पन्नों को कुछ ऐसे टटोल रहा था..

जैसे अंगुलियाँ सहला रही हों..

मेरे फैले हुए बालों को..

मेरी अंगुलिओं को पड़कर ..

ले जाने लगा,

समय किन्ही बिछड़े रास्तों में..

में कुछ सोचकर किताब बंद कर दी..

किन्ही और दिन के लिए..

यादें सहेज कर बंद कर दी. ...