सोमवार, 23 अप्रैल 2012

छोटका

छोटका..
कुछ पागल सा लगता है...
हो सकता  है ऐसा  न हो....
पर हम सब तो ऐसा ही समझते हैं ..
डाक्टरों का कहना  है ...
मानसिक रूप से  स्वस्थ्य है छोटका..
बस सामान्य लोगों से 
भिन्न है छोटका 
पर सामान्य लोगों से अलग ही ...
क्या नहीं होता  है पागलपन जैसा.....
असहमति  मनो चिकत्सक से हम सबकी रही...
भीतर ही भीतर घुटती...
और  छोटका जैसा था वैसा ही रहा 
जीता रहा उसी  ढंग से.... 
जो  बहुत अलग है हम सबसे....
और जिसे जोड़ा जा  सकता है बड़े आराम से
एक व्यक्ति के पागलपन से... 
एम० सी० ए० है फर्स्ट क्लास छोटका 
पर टिक  नहीं पाता किसी नौकरी में 
दो उसने खुद छोड़ दी 
तीसरी से  निकाल  दिया गया 
तीनो ही नौकरियां अच्छी थी...
ऊपरी कमाई वाली थी 
पर  छोटका को  न टिकना था 
सो नहीं टिका 
नौकरी के समय 
घर पर अकेले बैठा छोटका 
कुछ न कुछ बडबडाता रहता..
साले पब्लिक को परेशान करते हे 
पाँच मिनट का काम
पांच दिन दौड़ाते हैं...
बिना कुछ लिए दिए ..
फाइल को हाँथ भी नहीं लगते..
तब पिताजी  बैठकर उसे समझाते...
जो चलता है चलने दो..
ऐसे ही चलता है..
मिलती रहे समय से तनख्वाह
फिर तुम्हे क्या करना है...
सुनकर छोटके की बात
हमे होती कितनी झल्लाहट
उफ़ कितनी बचकानी बात करता है..
सत्यवादी हरिश्चंद्र बनता है...
पहले सारे दोस्तों की ...
फिर हम सबकी
हो गयी धूमधाम से शादी ...
बने रहे कुंवारे छोटके साहब ...
उन्हें कुंवारे ही रहना था..
भला कौन देगा उन्हें अपनी लड़की..
जिसकी हरकतें हो पागलों जैसी ..
छोटका धीरे धीरे मुस्कराता ..
कभी अपने माउथ आर्गन को बजाता...

बैठा रहता .. घंटो ऐसे ही..
और हम सभी भीतर ही भीतर कुढ़ते ..
जिसके पास ढंग के कपडे न हो ...
चप्पल भी जिसकी हो चार साल पुरानी..
जो पढ़ा कर थोडा बहुत कमाता हो..
उससे भी किताबें खरीद लाता हो..
वह आदमी कैसे इतने आराम से...
घंटो बजाता रहता है...
वेद, उपनिषद, बाईबिल, गीता...
कबीर, टैगोर, गाँधी, सुकरात, मार्क्स और ओशो..
न जाने कैसी कैसी  किताबों का
जमघट लगा रखा है घर पर..
कपड़ों को बहर रखना पड़ता है डारों पर..
छोटका देर रात तक जाने क्या क्या पढता है..
शाम को लान पर आकर बैठ जाते ...
कुछ लोग..
देर-देर  तक वो छोटके के साथ ...
किसी बहस में शामिल रहते ...
हवा के साथ उड़ते हुए कुछ शब्द...
हमारे कानों तक भी आ जाते..
"सामजिक न्याय, आर्थिक विषमता ...
मार्क्स, लेनिन के नाम "
उछलते हुए ड्राइंग रूम तक आ जाते ...
जहाँ हम सब बैठकर  टेलीविज़न देख रहे होते..
हम सब अपनी अपनी
नौकरी में खूब जम गए
एक एक बच्चे के बाप भी हो गए..
पर छोटका रहा वैसा ही जैसा था..
वैसे का वैसे  का मतलब..
वही पागलों जैसा.. !
उधर कम्प्यूटर को पढ़ाते...
घेरे रहते थे लड़की और लड़के..
छोटका कितने मन से पढ़ता है..
कितना अच्छा पढ़ाता है..
हमारे कानों में भी पड़ते हैं..
इस तरह के चर्चे..
कुछ आशा पापा को भी बंधी..
न कुछ तो कुछ बुरा भी नहीं है यह भी..
भीतर ही भीतर हम सबके
गुणा भाग चलने लगा..
बीस बच्चे तो आते ही हैं..
प्रति बचे अगर ३०० रु  लेता होगा..
महीने के ६००० तो आते ही होंगे..
पापा के सामने
छोटके की पेशी  पर हम सभी मौजूद थे..
"कितना कमाते हो"
जी पिछले महीने  में ७५० रु आये थे..
"इतने कम ? क्या लेते हो बच्चों से?"
जी कुछ निश्चित नहीं है..
वो पढना चाहते हैं..
इसलिए पढ़ाता हूँ..
जो देते हैं उतना ही रख लेता हूँ..
पापा बहुत क्रोद्धित हुए..
मुंह से शब्द  नहीं निकल पाए..
मैंने मोर्चा संभाला..
छोटके सुना है तुम


बहुत अच्छा पढ़ाते हो..
अपने हुनर  का फायदा क्यूँ नहीं उठाते हो..
क्यूँ नहीं  हुनर से हजारों कमाते हो   ?
"नो सोरी, आई कांट डू ईट.."
कहकर बिना किसी को ओर देखे..
कमरे के बाहर हो जाता है..


आजकल छोटके से मिलने ..
कई लोग आते है..
छात्रों के अभिवाहक किसी बहाने से..
मिठाई ओर फल लाते हैं..
छोटका यह सब लाने को साफ़ मन करता है..
तो वो बेहद उदास हो जाते हैं..
कुछ सामाजिक कार्यकर्ता..
कुछ अध्यात्मिक  जिज्ञासु ..
कुछ साहित्यकार  जैसे लोग..
घर पर  जब तब दिखाई देते हैं..
कुछ आमिर लोग गाड़ी लेकर ...
भी आते हैं और बड़े सम्मान ...
से छोटके को उसमे ले जाते हैं..
देखकर ऐसी अनहोनी सी..
हम सबको घुटन सी महसूस होती है..
ऐसा क्या है छोटके में ...
नौकरी कर नहीं पाया कहीं भी..
न सिख पाया कभी ढंग से रहना..
बदरंग कुर्ते, पैजामे में...
पुरानी चप्पलों में...
होता ही जा रहा है इजाफा ...
छोटका के पागलपन में...
अब तो कवितायेँ भी लिखता है..
उसके लेख पत्रिकाओं में भी छपते हैं..
लड़के उसे घेरे रहते हैं...
और लोग उसकी चर्चाएँ करते हैं..
लोग क्या पागल होते जा रहे हैं?
आखिर क्या है स्टेट्स  छोटके का..
हम लोगों के पास अपनी  कारें हैं..
हाँथ में मोबाइल फ़ोन हें...
लायंस और रोटरी क्लब की सदस्यता है..
पाश लोकेलिटी में अपना प्लाट है..
बच्चे पब्लिक स्कूल में पढ़ते हें. ..
हम हाई सोसाईटी में  उठते बैठते हें.. 
बस छोटके का होना ही ..
मखमल में टाट का पेबंद हें..
कब समझेगा पैसे की कीमत?
कब समझेगा इज्ज़तदार होने का मतलब.. 
कब जानेगा कि क्या होता है स्टेट्स ..
क्या यूँ ही पढता रहेगा  मोटी - मोटी किताबें...
सामाजिक न्याय पर करता रहेगा बातें..
और पढाता रहेगा ...
क्या होगी जिन्दगी यूँ ही व्यर्थ ..
हम सभी परेशान है..
और वो है अपने में मस्त..

उस दिन छोटका निकल गया घर से सबेरे..
पर शाम तक न लौटा..
देर रात में लौटा भी तो पुलिस के साथ..
जो उठा कर लाये थे छोटके कि लाश..
राह चलते  ही पड़ा था दिल का दौरा...
पुलिस ने उठकर अस्पताल पहुँचाया था..
लेकिन तब तक वो गुजर चूका था..
बाहर बहुत  भीड़ लगी थी..
जाने-पहचाने चेहरे की...
पर उस भीड़ से भी बड़ी एक भीड़ थी..
छोटके के अन्तरंग से जुड़े..
समाज के अनजाने चेहरे..
लड़के - लड़कियां ऐसे रो रहे थे..
जैसे उनके किसी सगे की मौत हो गयी हो जैसे..
बड़े रो रहे थे.. मानो एकमात्र पुत्र को खो दिया हो जैसे..
हम हैरान थे हमेशा की तरह ...
ऐसा क्या था उसमे..
कि सेकड़ो आँखे नम हें..


छोटका अब नहीं है..
न होने जैसा तो पहले भी था.. 
पर शायद ...
कुछ न होते हुए भी  कुछ था..
ढेर सारी किताबें राखी हें रेक पर ....
कम्प्यूटर  भी वैसे ही पड़ा है..
बाट जोहता उन अभ्यस्त उंगलीओं का..
जो उनके सिने रूपी कि-बोर्ड पर चलती थी..
फाईल में दबी है अधूरी  कवितायेँ  और लेख..
इंतजार में पूरा होने के..

महसूस कर रहा हूँ..
तमाम दौलत  और शोहरत के बीच...
पसरता हुआ एक बेबूझ सन्नाटा..
कोई था..
जो मंद-मंद  मुस्कराता  था..
कोई था..
जो माउथ आर्गन बजाता था..
कोई था जो..
नो आई कांट डू देट कहकर..
कमरे से बाहर निकल जाता था..
क्या इतने गहरे तक बैठी होती है...
"ना कुछ" से व्यक्ति कि जड़े...?
क्या इस हद तक होता है..
असाधरण
किसी का साधारण होना..
माउथ आर्गन नहीं है..
बहस नहीं,  लड़कों का जमघट नहीं..
ज़माने का दर्द नहीं..
कविता का छंद  नहीं..
प्यार नही..
पीड़ा नहीं..
अहसास नहीं..
चिंतन नहीं..
मनन नहीं..
आंसूं नहीं..
कुछ भी नहीं..
चिता पर स्वाहा हो गया सब..
छोटके के साथ ही !!!!













रविवार, 22 अप्रैल 2012

क्यूँ है..

कागज सा यह शहर क्यूँ है...
आग से सबको इतना डर क्यूँ है...
अंतिम यात्रा भी संस्कार क्यूँ है... 
भगवान है तो भगवान क्यूँ है... 
जिसको होना था हर दामन पर ...
वह दाग आखिर चाँद पर क्यूँ है.. 
लिखना गर नही आता है तो..
हाँथ में यह मुकद्दर की कलम क्यूँ हैं.. 
रहना है तो किसी के घर में रह.. 
तेरे लिए मेरा यह दिल क्यूँ है.. 
भुला सकता हूँ सब कुछ जहाँ का.. 
मगर तेरी याद मेरी जेहन में क्यूँ है.. 
सच है समय का मलहम..
हर ज़ख्म भर देता है.. 
मगर जाते जाते...
निशां छोड़ जाता है... 

शनिवार, 21 अप्रैल 2012

इंसानियत कहीं सो गयी है...
लगता है कि जैसे कहीं खो गयी है..  
किसी के दिए दिवाली में है  खाली ..
कोई उन दियो में जाम डालता है... 
किसी के चिता पर मानता है मातम... 
कोई उन चिताओं पर रोटी सकता है.. 

पेशानी की लकीरों से भाग्य नहीं बदलता...
आसुंओ के बहने से दामन नहीं धुलता... 
दूसरों को गिराने में कोई गरूर नहीं होता...
अपनों से लड़ने में कोई वीर नहीं होता... 

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

बड़ी शिद्दत से रूह को जिस्म से अलग कर पाया.... 
आज मैंने उसकी यादों से नाता तोड़ डाला... 

गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

तारीख...


बेवकूफ सी काया लिए 
मुस्कराते हुए  गुजर जाएगी... 
आपके बगल से...
आप निश्चित भूल जायेंगे.. 

दुनिया   की तारीख को... 
याद नहीं आएगी  वो... 
कि कब हांथों से फिसलकर ...
चली गयी धूप ..
बगल में पड़ी होगी लाठी...
और आप लाठी के लिए चिल्ला रहे होंगे... 
तभी सरक रही होगी...
आपके पैरों के बीच सर्पनी...
आप देखते रह जायेंगे...
और गुजर जाएगी... यह तारीख....

अग्नि -4


 पडोसी (?)  का  इरादा  नापाक होगा ...
हाँथ जलेगा  सरहद को छूने से....                 
यदि क्षितिज  लिया बालिस्त भर....
तो उसे वसूलेंगे हम देने  से ....
भारत सीमा से  जब  उस (?) पर ....
अग्नि -4 छोड़ा जयीगा...
पर अफ़सोस  होगा हमको .....
वह   उसको(?) पार कर  जायेगा...
अरे सीमा  पर क्या  जाना है ...
हम  दिल्ली  बैठे  छोड़ेंगे...
पडोसी(?) की इस नादानी  पर
हम उसके  कान मरोड़ेंगे....

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

आशा

दिन की थकान के बाद
जब अँधियारा 
रौशनी से जितने लगता है
तो सूरज  चुप चाप  
कहीं छुप जाता है
कल की तैयारी में कि
फिर रौशनी होगी
फिर जीवन में उमंगें होंगी
में भी दिन भर की
अंतहीन परेशानियों  के बीच
अपने बिस्तर में लेटा
सलवटों को गिनता
दिन की उहापहो के बीच 
निदियाँ   को न्योता देता 
लेटा हूँ
निदियाँ आँखों से छिटक कर
दूर कुर्सी पर बैठी
बड़ी अजीब निगाहों से देखती
मुझ पर हंसती 
कहती है...
दिन भर की कर्कशता, विवशता 
द्व्न्दता, लालसा 
में डूबी इन आँखों में 
में नहीं आ सकती 
मुझे चाहिए सकून, शांति 
निश्चलता और प्रेम ...
में अपने आप को धिक्कारता, कचोटता 
वही पर लेटा लेटा 
धीरे धीरे शांत हो जाता हूँ 
और न जाने कब निदियाँ धीरे से 
मेरी आँखों में समां जाती है 
एक और दिन का दरवाजा बंद हो जाता है...
कल के लिए.... कल के लिए ...



सोमवार, 16 अप्रैल 2012

"एक समंदर था जिसे पैरों तले रौंद दिया 

एक दरिया है जिसे पार नहीं कर पाए"

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

बेबसी

देखती रहती है यूँ ही हर रोज़ ..

आसमां की तरफ बेमतलब ज़मीं...

हमारा इतिहास बन जाएगी....

दब जायेंगे सब यहीं  फिर भी चुप रहेगी ज़मीं... 

मतलबी इन्सान ने ये क्या किया..

पेट के लिए बेच डाली ये साडी ज़मीं..

कंक्रीटों के इस जंगल में.....

शहर में नहीं बच पाई पांव रखने को ज़मीं...

हे भगवन तुझे मालूम होगा ...

कितनी किसको चाहिए ये ज़मीं...

अपने दिल का बोझे न संभल सकी...

तो असमान को किस तरह संभाले ये ज़मीं...


सोमवार, 9 अप्रैल 2012

व्याकुलता(तनाव)

तनाव की लिखावटें अक्सर अजीब  होती   हैं...


कांपती  सी और कुछ उलझी हुयी...


उनमे कहीं कहीं शब्द टूट जाते हैं.....


कटिंग होती है और सहायक  क्रिया नहीं  होती है...


और सबसे अजीब होता है सपनों का मरना......


एक दोस्त बात को बदल  के कहता है....


खतरनाक है सपनों का बिखर जाना....


दूसरा दोस्त बात को फिर बदलता है कहता है..... 


सबसे अधिक खतरनाक है सपनों का बिक   जाना.....


वह सब कुछ बेच   सकता  है.....


अपनी ज़मीर, अपना ज़हां.....


यहाँ  तक कि अपना स्वप्न... 


दिमाग रह रह कर सोचता है.....


माथे पर सिलवटें बढती जाती हैं....


शायद तनाव भरी पड़ता  HAI....


ज़िन्दगी यूँही गुज़रती है तनाव में...


रह जाता है सिर्फ तनाव....तनाव.....तनाव....







रविवार, 8 अप्रैल 2012

प्यार

मेरे हर झूठ को सच समझती थी...

मेरा चिल्लाना, मेरा चीखना किसी को न भाता...

मगर वो मुझे अपने गोद में बैठाती थी ....

बाहर से जब भी आता था .. वो पानी पिलाती थी..

गर्मिओं की रात में खुद को जगाकर हमें सुलाती थी...

सबेरे सबसे पहले उठकर चाय बनाती थी ...

मेरे अज़ीज़, मेरे दोस्त सब मुझसे नफरत करते हैं...

केवल मेरी माँ थी हाँ बस मेरी माँ थी जो मुझसे प्यार करती थी....