शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

पगडण्डी

रात की चादर ओढ़े
चुपचाप सोयी है
वो पगडण्डी जो शहर से
गाँव की ओर आती है
पगडण्डी पर उगी घासें
नाम हैं, भीगी हैं
जैसे सुबक कर
कोई चुप हो गया हो
बहुत रोई होगी उस
राहगीर के लिए जो लौट के न आया
उसका घर छुटा
वो भीतर से टुटा
सन्नाटा है पसरा
पगडण्डी अभी भी
चुप है सुबक रही है ...... इंतज़ार में ..