शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

हैप्पी न्यू year


आप सभी को यह नया साल शुभ हो, मंगलमय हो और धान्य धान्य से परिपूर्ण हो यही भगवान से मनोकामना है

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

तकदीर

नफरतों और बेमानिओं के दौर चल पड़े
भाईयों हम भी अपने को आजमाने निकल पड़े
वे परीआं वे गुडिया उनकी किस्मत में कहाँ
कितने बच्चे भोर में भीख मांगने निकल पड़े
एक सच बोल देता तो बोझ हट जाता तभी
पर छुपाने को उसे सों सों झूठ बोलने पड़े
जो करते रहे सदा उजाले की बातें
वो ही अंधेरों में महफ़िल सजाने चल पड़े ....

बदलता है

कभी चेहरा कभी दर्पण बदलता है
हजारो बार अपना मन बदलता है
हमेशा याद रखना अनुभवों का पाठ
किताबों से कहाँ जीवन बदलता है
भरोसा किस तरह कोई करे उसका
जरा सी बात पे जो मन बदलता है
बदल दूंगा उसे भी एक दिन देखो
हमेशा प्यार से दुश्मन बदलता है

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

तारीख

बेवकूफ सी काया लिए
मुस्कराते हुए गुजर जाएगी वह
आपके बगल से
आप निश्चित भूल जायेगे
दुनिया की तारीख को
याद नहीं आयेगी वह
कि कब हाथों से फिसलकर
चली गयी धुप
बगल में पड़ी होगी लाठी
और आप लाठी के लिए चिल्ला रहे होंगे
तभी सरक रही होगी
आपके पेरों के बीच नागिन
आप देखते रह जायेंगे
और गुजर जाएगी
यह तारीख ........................

नया साल

जाते हुए साल के गम में
आते हुए साल की ख़ुशी में
जिंदगी एक किताब सी खुली है
कई सफे तो खुले भी नहीं
किसी सफे को यादों ने मोडा है
किसी पर निशाँ थे आंसुओं के
किसी सफे पर उदासियाँ तैरती थीं
मगर कहने को तो ये किताब थी
कौन जाने कि गिंदगी थी ...............

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

ख्वाब

रोते, हँसते, गाते मैंने देखा है
उसे अपने मैं पलते मैंने देखा है
हमारी दुआंओ से उसकी जिन्दगी रोशन है
उसकी आदतों को खुद मैं ढलते मैंने देखा है
न जाने कौन सा स्वप्न आवाज देता है
मैंने अपने आपको नींदों मैं चलते देखा है
मुझे मालूम है तेरी दुआएं साथ रहेंगी
मुश्किलों को हाथों मलते मैंने देखा है
मेरी खामोशियों मैं तैरती है तेरी आवाजें
मैंने अपना दिल मचलते देखा है
बदल जायेगा सब कुछ बदल छटेगा
मुझी आँखों से ख्वाब जलते मैंने देखा है .

अंतर्द्वंद

दिमाग के अंतरद्वंद
के बीच
नसों की सरसराहट
स्पस्ट सुनाई देती है
जैसे लगता है
वह आदमी भोतिकता, अपनी सोम्यता
को न्युछावर कर रहा हो
इन्ही सब के बीच
एक वेदना भी है, दर्द भी है
वह चीत्कार कर उठती है
उसे भुलाना चाहती है
मगर ऐसा हो तब न ?
वह चाहकर भी
नहीं भूल पाती
दर्द उसका दामन
मरते दम तक नहीं छोड़ पाता
और वह निह्स्प्रान
कफ़न से भी ठंडा बना
बैठा है
शायद कोई उसे सुने
उसकी तरफ देखे, मगर जिन्दगी
यूँ ही कट जाती है
दिमाग का अंतरद्वंद
लगातार चलता रहता है
और बस चलता रहता है ..........

क्यूँ है

कागज सा यह शहर क्यूँ है
आग से सबको इतना डर क्यूँ है
अंतिम यात्रा भी संस्कार क्यूँ है
भगवान है तो भगवान क्यूँ है
जिसको होना था हर दामन पर
वह दाग आखिर चाँद पर क्यूँ है
लिखना गर नहीं आता है तो
हाथ मैं यह मुकद्दर की कलम क्यूँ है
रहना है तो किसी घर में रह
तेरे लिए मेरा यह दिल क्यूँ है
भुला सकता हूँ सब कुछ जहाँ का
मगर तेरी याद जेहन मैं क्यों है ..........