शुक्रवार, 15 अप्रैल 2022

अंतिम सफर

 
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सोमवार, 31 मई 2021

हिसाब कर लो ...

 सुनो ... 

ऐसा करो हिसाब कर लो 

क्या हमें लेना है 

क्या तुम्हे देना है 

क्या बाकी है 

ये लेन-देन अब बस करो 

कई शिकायतें हैं 

कई नाराज़गी हैं 

वो ज़ज्बात, वो अहसास 

अब बस करो 

इसकी जरुरत होगी तुम्हे 

बचा कर रखो ... 

सुनो .. 

ऐसा करो हिसाब कर लो 

कई रातें हमने आँखों में ही काटी हैं 

कई बातें हमने अपने दिल में ही रखीं हैं 

अब ये शिकायतों का मौसम 

ख़त्म होता दिख रहा  

सहेज कर रखो सुनहरी यादों को 

कम से कम वो तो अपनी है 

उसमे किसी से कोई शिकायत नहीं 

कोई गिला नहीं 

कोई नाराज़गी नहीं 

अच्छी है हमेशा रहेंगी ... 

दिल के पास रहेंगी ...

सुनो ... 

ऐसा करो अब हिसाब कर लो ....


शनिवार, 18 जुलाई 2020

प्रतीक्षा ..

हाँ ये होता है ... 
मुश्किल की घडी जल्दी नहीं जाती है 
यादें हमेशा से और आती हैं .. 
कितने बार ऐसा होता है 
आदमी टूट जाता है
बिखर जाता है 
मगर वो  नहीं आता है  
प्रतीक्षा हाँ ये प्रतीक्षा बहुत डराती है 
किसी के आने की आस 
उसका अहसास 
क्या गलत क्या सही 
न जाने कितने सवालात कौंध 
जाती है 
प्रतीक्षा हाँ ये प्रतीक्षा बहुत डराती है 
न जाने बारम्बार किसी आहट पर 
नजरें कौंध जाती है 
धड़कने बढ़ जाती है 
कई अतार्किक सवाल 
अपने से आप करने लगता है 
जिसका कोई सर-पैर नहीं होता है 
कभी अपने को झुठलाता है 
कभी उसको झुठलाता है 
मगर यथार्थ वहीँ होता है 
निश्छल, अमिट और अडिग 
मन कहाँ मानता है 
कितने हीं नोटिफिकेशन को 
बार बार देखता हैं 
यह अहसास होता है 
कि  अबकी बार हाँ अबकी बार 
वो आया है ... 
मगर ऐसा नहीं होता है 
दरवाजा हमेशा से ही खुला है 
उसकी आस में 
उसकी अहसास में 
आँखे पथरा गयीं हैं 
दिल बैठ गया है 
मगर जिसका इंतजार है 
वह नहीं आया है 
प्रतीक्षा हाँ ये प्रतीक्षा बहुत डराती है 

शनिवार, 6 जून 2020

ट्रेन का मुसाफिर

ट्रेन के रफ़्तार से ये पता चल रहा था कि कोई स्टेशन आने वाला है | अचानक डिब्बे में हलचल भी तेज होने लगी है... ऊपर वाले बुजुर्ग टाईप  से दिखने वाले  सज्जन जिन्होंने अपनी सफेदी को ढांपने के लिए बालों और मुछों को रंगा हुआ था .... वह भी अपना जूता जो ऊपर पंखे पर रखे थे.. उठाने लगे थे ... और जैसे ही जूता उठाया तो जूते में लगी मिटटी जो मेरे सर पर पड़ी मैंने ऊपर देखा तो वो मिटटी मेरे  सर पर पड़ी ..... वो तो शुक्र हो मेरे चश्मे का ...नहीं तो  सीधे आँखों में पड़ती ... |



सामने बैठे सज्जन भी फ़ोन मिलाकर  किसी से वार्ता कर रहे थे ....
शर्मा जी ... में पहुँच रहा हूँ....
आप आओगे मुझे लेने  या मैं खुद ही आ जाऊं ...??

ये हलचल बता रही थी कि कोई प्लेटफोर्म आने वाला था |

मेरे स्टेशन तो भी दूर है ... अभी केवल ६ बज रहे हैं सुबह के और मेरा स्टेशन  तो करीब १ बजे दोपहर में आएगा ... ये सोच कर में थोडा और चौड़ा होकर ... पसर गया और आराम से बैठकर बाहर खिड़की से नज़ारा देखने में व्यस्त हो गया |

बाहर गढ़ढ़ों में पानी भरा था ... जो ये बता रहा था कि बारिश हो चुकी है ...

यहाँ पेड़ पौधे  खिले हुए थे ....  बारिश में ... बचपन  में हम जब कभी ट्रेन से सफ़र करते अपने मम्मी पापा के साथ  तो खिड़की पर बैठने  के लिए लड़ाई  होती थी अपने बहन भाईयों के साथ और  बाद में मम्मी हम लोंगों को एक के बाद एक  करके खिड़की  पर बैठाती थी | और हाँ पापा  ये कहते कि जो भी स्टेशन आये उसे कागज़ पर नोट करो ...  इस स्टेशन के बाद अगला स्टेशन  कौन आएगा  ये भी हम पढ़ लिया करते थे |  स्टेशन के आने  से पहले ट्रेन कि पटरियों से आवाजें आने लगती थी...  पापा कहते थे  कि ट्रैक  चेंज हो रहा है इसलिए आवाजें आ रही हैं |

तभी अचानक  तेज आवाज से मेरी तन्द्रा टूटी ट्रैक चेंज  हो रहा है .... मैं मंद मंद मुस्कराया  कि अब निश्चित ही कोई स्टेशन  आ गया है |

ट्रेन खड़ी थी ..  एक स्टेशन पर छोटा स्टेशन था ... मैंने झाँक कर देखा तो एक चाय वाला चाय बेच रहा था ...

मैंने उसे बुलाया .. और एक कप चाय  मांगी  और पुछा कि कौन सा स्टेशन है .??
उसने कहा ... कि "गडक" आया है ... और यह कहकर वो जाने लगा ...
मैंने कहा कि "लाल कुआँ" कब आएगा ?
वो बोला ... ४-५ घंटे लग जायेंगे ...

मैं चाय कि चुस्कियां  लेने लगा चाय वही स्टेशन टाईप  वाली थी ..अच्छी न होने के बावजूद  पी रहा था |

तभी सामने से एक अपाहिज जिसके दोनों पैर नहीं थे ... बैसाखी पर चलता आता दिखा ...

वो आकर मुझसे कहा कि  क्या मैं  आपके सामने वाली सिट  पर बैठ सकता हूँ ??

मैंने कहा कि .. क्यूँ नहीं ...

वो सामने वाले सिट पर  बैठ गया ... और अपनी  निगाहों से इधर उधर  देखने लगा ...

देखने से तो भिखारी  लग रहा था...

कुछ देर बाद जब ट्रेन चली तो केवल मैं और वो ही डिब्बे में थे ... हमारे अलावा और कोई भी उस डिब्बे में नहीं था....

ट्रेन अपने पूरे वेग से चली जा रही  थी ... मैं अधिकांशतः  खिड़की के बाहर ही देख रहा था ... धूप बहुत तेज हो रही थी...

मुझे प्यास लग रही थी ..

मैंने अपने बेग में हाँथ डालकर अपनी बोतल निकाली .. तो उसमे पानी नहीं था...

वो अपाहिज मुझे देखकर  मंद मंद मुस्कराया ... जैसे वो बोलना चाहता हो ... मगर वो बोला नहीं |

ट्रेन तीन चार स्टेशन  पर रुकी थी मगर  पानी नहीं मिल पाया ... और मुझे प्यास ज्यादा  तेज लगने लगी ...

एक स्टेशन आने से पहले वो अपाहिज अपनी सिट से उठा और  गेट की तरफ जाने लगा .. मैंने उसे आवाज देकर कहा कि  आपका बेग छूट रहा है लेते जाईये ...

वो मुड़कर कहा कि... मैं जा नहीं रहा .. अभी आता हूँ....

अब ट्रेन की रफ़्तार कम हो चुकी थी .. लोग उतरने लगे थे ...
मैं फिर खिड़की से बाहर झांकने  लगा  पानी की तलाश में ..

वो अपाहिज  आदमी जिसका धीरे धीरे  चलती ट्रेन से उतरना संभव नहीं था...  वो अपनी बैसाखी  के सहारे  उतर गया चलती ट्रेन से.... ये देखकर  मैं घबड़ा गया .. कि अरे मरेगा क्या ??

क्या जरुरत  थी इसे चलती ट्रेन से कूदने की .. और देखते देखते   वो  गायब  हो गया ...

अब उसका बैग सामने वाली सिट पर रखा था .. दिमाग में तरह - तरह  के विचार  आने शुरू हुए .. कहीं  इसमें बम तो नहीं हैं ... ??
ये कौन है ... ??
इसने ऐसा क्यूँ किया ..??

तभी ट्रेन ने सिटी बजाई  और प्लेटफार्म पर रेंगने लगी ...
मैं बाहर  उसको खोजने लगा ...

अचानक वो अपाहिज.. बैसाखी पर  बहुत तेजी से आता दिखा .. और उसने बहुत तेजी से  मेरी खिड़की पर आकर  एक पानी की बोतल  फेंकी .. और बहुत ही मुश्किल से किसी तरह ऊपर चढ़ कर डिब्बे में आया ...

उसकी साँसे उखड़ी हुयी थी ...
वो हांफ रहा था ...
पूरा चेहरा पसीना - पसीना  हो रहा था...
मुझे देखकर  वह फिर .. मंद मंद मुस्कराया ...
और कहा ..
पानी पी लो ...

मैं अभी कुछ देर पहले उसके बारे में क्या - क्या सोच रहा था .. मुझे बहुत ग्लानी महसूस हुयी ..  मेरे हाँथ में पानी की बोतल  थी..
वो सामने था ...
मगर मेरी प्यास एकदम गायब हो गयी थी ...
मैंने जेब में हाँथ डाला और २० रुपया का नोट निकाला ..
और उसे देने लगा ...
वो मुझे देखा ...
और गुस्से में बोला ...
रख लो...
मैंने पैसों के लिए पानी नहीं दिया है...
तुम प्यासे थे...
इसलिए पानी लाया हूँ...
मैंने अपने पैसे अपने जेब में रख लिए..
और पानी पीने के लिए बोतल मुंह से लगाई..  और एक घूँट में आधी बोतल पानी पी गया ...
ये देखकर उसके चेहरे पर तसल्ली आयी...

मैंने उससे पूछा क्या नाम है आपका ??
विनोद ... वो बोला
विनोद क्या करते हो ? दूसरा प्रश्न फेंका ...
वो बोला काम करता हूँ..
कौन सा ? मैंने पूछा ...
इससे तुम्हे कोई मतलब नहीं है... वो थोडा गुस्से में बोला
बस ये समझो शाम तक खाने तक का कमा  लेता हूँ..

तूम जा कहाँ रहे हो ?? विनोद ने पूछा ..
मैंने कहा लाल कुआँ जा रहा हूँ .. नयी नौकरी मिली है वहीं जा रहा हूँ ..
क्या नाम है तुम्हारा  ?? विनोद ने फिर पूछा
अभिनव .. है मेरा नाम
अच्छा है .. मैं इसी रूट पर रोज सफ़र करता हूँ. ... कभी जरुरत हो तो फ़ोन कर लेना ... ये कहते हुए  उसने एक कागज जिसपर उसका मोबाइल  नंबर लिखा था मेरी तरफ बढ़ाया ...
मैंने उसे धन्यवाद कहते हुए वो कागज़ रख लिया...
बहुत अच्छा लगा आपसे मिलकर ..
वो बोला .. आदमी मुसाफिर है .. आता है और जाता है ....
और वो अगले स्टेशन पर उतर गया ... जाते हुए वो मुस्कराते हुए हाँथ हिलाया ..
मैंने उसे दोनों हाँथ जोड़कर नमस्कार किया ...
उसका दिया हुआ कागज़ मेरे हांथ में था...
जिसमें उसका नंबर लिखा था..
मैंने उसका  नंबर अपने मोबाइल में सेव कर लिया ...

मैं उसके .. एक महीने बाद उसी ट्रेन में जा रहा था .. तो मैंने यूँ  ही उसका नंबर मिलाया ..
उठाते ही वो बहुत रोबीले आवाज में बोला ..
विनोद बोल रहा हूँ...
कौन ??
मैंने कहा मैं अभिनव बोल रहा हूँ.. आपसे ट्रेन में मुलाक़ात हुयी थी .. आपने मुझे पानी की एक बोतल दी थी...
वो हंसा .. हाँ याद है ... याद है ... कहाँ है ... ?
मैंने कहा  उसी ट्रेन में हूँ...
उसने पूछा किस स्टेशन पर हो मैंने कहा कि अभी "तर्रा " आया है ... 
वो बोला ... बोगी नंबर  ??
मैंने कहा एस ५ है ... 
उसने कहा .. अभी आता हूँ... 
तीन स्टेशन जाने के बाद वो अचानक मेरे डिब्बे  में खड़ा था ... 
एक पानी की बोतल .. कुछ समोसे के साथ ... 
मैंने उसे गले लगा लिया .... 
मेरी आँखों में पानी आ गया ... गला रुंध सा गया ... 
मैंने  उसे अपने बगल में बिठाया .. 
मैंने उससे पूछा कहाँ रहते हो भाई ??
वो बोला ट्रेन में ... 
मने कहा घर नहीं है क्या ??
वो बोला  इतना बड़ा घर है तो ? ... 
मैं कुछ न बोल सका .. निरुत्तर हो गया ... 
उसने मेरा हाल चाल लिया ... और ... 
वो जाने लगा ... 
वो जैसे आया था वैसे ही चला गया .. 
मेरे मन में उसके लिए बहुत सम्मान  बन गया था ... 

मगर वो बातें बहुत कम करता था .. 
बहुत ही ज्यादा संदेहास्पद सा था .. 
मैं उस रुट पर करीब दो साल चला ... और जब - जब फ़ोन करा वो तब-तब आता था पानी की बोतल के साथ .. 
बैठता था .. हल चाल पूछता था .. और चला जाता था.. 

दो साल के बाद मुझे नयी नौकरी मिल गयी ... और मैंने अपनी नौकरी बदल दी ... 
नौकरी बदलने के करीब ढाई साल बाद "लाल कुआं" से अपना सामन लाने के लिए मैं .. उसी ट्रेन में जा रहा था.. 
अचानक मुझे उसकी याद आयी  और मैंने उसका फ़ोन लगाया ... 
पर उसका फ़ोन लगा नहीं... 
मैंने फिर से लगाया पर फिर नहीं लगा... 
मैं बहुत परेशान हो गया ... क्यूँ परेशान हुआ .. मैं नहीं जानता मगर बहुत परेशान हो गया ... 
जब "तर्रा" स्टेशन आया तो ... मुझसे रहा नहीं गया ... 
मैं उतर गया .. उसकी खोज में .. मगर वह नहीं मिला ...  "तर्रा" स्टेशन के  बगल में एक गुमटी थी जिसमे  पान, सिगरेट इत्यादि मिलती थी... 
मैं उससे एक सिगरेट मांगी .. और धुएं के छल्ले को उड़ाने लगा... 
मैंने सोचा शायद इसे विनोद के बारे में कुछ मालूम हो ... 
मैंने उससे बड़ी हिम्मत करके पूछा कि ... 
भाई क्या एक आदमी जिसका नाम विनोद है .. उसके दोनों पैर नहीं है ... बैसाखी पर चलता है .. जानते हो ??
वो बोला ... उसे कौन नहीं जानता ... 
वैसे आप कौन हो ??
मैंने कहा भाई मेरा नाम अभिनव है .. मुझे उससे मिलना है .. क्या तुम  ये बता सकते हो कि कहाँ मिलेगा...  मैं लाल कूआं में काम करता था..  अपना सामान लेने आया हूँ.. अगर तुम्हे पता हो तो बता दो .. बहुत मेहरबानी होगी.. दरसल उसका नंबर लग नहीं रहा है... 
वो गुमटी वाला बोला ... 
बाबू साहब .. आप लाल कुआं चले जाओ... 
विनोद रेल के कोयले का बहुत बड़ा माफिया था .. 
पिछले महीने ट्रेन से उतरते  समय कट कर मर गया ... 
अब वो कहीं नहीं मिलेगा ... ये कहकर वो पान में चुना लगाने लगा ... 

मैं वहीँ  बैठ गया ... ये सुनकर मुझसे विश्वास नहीं हो रहा था.. पान वाले की बातों पर .. पर अब विनोद नहीं था.. सच तो यही था.. 
विनोद की वो लाईने  कान में गूंजती रहीं कि ...

आदमी मुसाफिर है ... आता है और ... जाता है ... 




रविवार, 31 मई 2020

बिलकूल नहीं ....

इसे तो सबको एक दिन छोड़ना ही था ... 
ये दुनिया है तेरा घर बिलकुल नहीं ... 
मज़ा तो खुद से खुद को लुटने में हैं यारों .... 
किसी और को लूटना अच्छा नहीं ... 
मेरी कोशिश से वो बदलेगा एक दिन ... 
ये मेरा वादा है, दावा बिल्कूल नहीं ... 
मिलेगा एक दिन आफताब हमें .. 
ये होसला है, ख्वाब बिलकूल नही है, 
जिसे देखकर आ जाता था चेहरे पर नूर ...
वो दिल्लगी है, दिल की लगी बिलकूल नहीं है .. 
उसने मुझे सब कुछ दिया है इस जहाँ में .. 
वो मेरी माँ है,  दूसरा कोई बिलकूल नही हैं ...