मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

अंतिम दर्शन

वो गंगा की धारा 
वो निर्मल किनारा 
जहाँ माँ थी लेटी
हमें कुछ न कहती 
हमें याद है वो 
निर्मल सा चेहरा 
अभी कुछ था कहना 
अभी कुछ था सुनना 
याद आ रहा था 
माँ का तराना 
जिसे गाया करती थी 
माता हमारी ... 
उठाया करती 
वो गाकर तराना 
मगर आज वो लेटी 
हमे कुछ न कहती 
पानी था निर्मल 
वो अश्रु की धारा 
रोके न रुकी थी 
वो आँखों की धारा 
वही था वो सूरज 
वही था किनारा 
मैंने माँ को देखा 
जैसे वो हंसी थी
मगर वो थी लेटी 
हमें कुछ न कहती 
खत्म हो रहा था 
वो सूरज का तेवर
वो चिता का जलाना 
वो दिल का पिघलना 
जहाँ माँ थी लेटी 
बचा कुछ नहीं था 
वही था किनारा 
वही थी वो धारा 
बची बस वो यादें 
माँ की पुरानी 
जिसे लेकर बैठा 
मैं अब भी किनारे .... 
मेरी माँ बसी है 
मेरे मन के अंदर .... 
मुझे याद  आ रहा था 
माँ का वो तराना .... 
उठ जाग मुसाफिर भोर भयी ...... 

बुधवार, 9 अप्रैल 2014

फलसफा

आज मैंने फिर अपने सपनों का सौदा किया 
जिंदगी के उल्टे फलसफ़ों को फिर सीधा किया 
ता-उम्र मेरे काम न आए मेरे उसूल 
आज मैंने उन्हे एक-एक करके नंगा किया 
कुछ कमी मेरी अपनी जद्दोजहद मे थी 
ऐ जिंदगी, तुमसे क्या कहते जो किया अच्छा किया 
हो गई थी कुछ उम्मीदें तुमसे भी 
तुमने भी वही करा जो औरों ने किया 
रात को सोया तो सबेरा तो होना ही था 
ऐ जिंदगी तुमने एक दिन और दिया, अच्छा किया 
कुछ गफलत मेरे अंदाज मे थी 
और तुम मुगालते मे रहे, यह भी अच्छा रहा ....