शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

उलझन ... उलझन है ...

आज गहरे अंतस में
न जाने कैसी 
अजीब सी 
छाया बन रही है 
लगातार जारी है 
समझने की नाकाम कोशिश .... 
मगर छाया नहीं सुलझती 
दौड़ रहा हूँ ... 
बीते हुये कल के 
हर एक के जानिब को 
शायद वो हो ... 
नहीं वो नहीं है ... 
अच्छा वो हो सकता है 
मगर कहाँ भागूँ 
कितना भागूँ ... 
बहुत दूर आ  चुका हूँ 
वापस जाना मुमकीन नहीं हैं 
अंतस में 
छाया और गहरी 
होती जा रही है 
अजीब सा लगता है 
जब कोई अपना हो 
और अपना न भी हो 
छाया तो छाया ही है 
मगर है तो किसी
अपने की 
है न .... 
लगाव सा हो गया है 
मगर पहचान नहीं पा रहा 
कोई - कोई उलझन अच्छी 
लगती है ... 
सुलझे बगैर ... 
उलझन ... उलझन ही है .... 

मैं कौन हूँ .....

किसको पता कि कौन हूँ मैं ....
कोई शब्द नहीं निःशब्द हूँ मैं ....
खुद के चित्कार में छुप जाता हूँ
मेरा अस्तित्व,
मेरी संवेदनाएं
सन्नाटों ने खूब पढ़ा है
मेरे अनकहे शब्दों को
और ठंडी चुभती सर्द हवाओं ने
महसूस करा है ....
मेरे शब्दों के एहसास को .....
बहुत कुछ कहता हूँ
दिन भर .... 
तुमसे, सबसे
पर सच कहूँ तो 
आज तक
मैं, सिर्फ निःशब्द हूँ .....