मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

शाम

शाम जब आती है 
दिवाकर वक़्त के परों  पर बैठकर 
धीरे धीरे चला जाता है 
मुस्कराता हुआ 
तो तुम बहुत याद याद आते हो 
और ऊस  लालिमा के साथ 
डूबने  लगता है ये दिन भी ...
शाम की सुचना देते पंक्षी 
जब लौटने लगते हैं बसेरों को 
दरख्तों के लम्बे होते साये 
पड़ते हैं जब जमीनों  पर 
तो अचानक ही तुम्हारी याद आ जाती है
व्यतीत होता  एक और दिन 
समाप्त हो जाता  है
और एक आशा आंसू बनकर 
मुस्कराने  लगती है
जब शाम आती है  ......

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

निंदिया

दिन के थकान के बाद 
जब अँधियारा 
रौशनी से जीतने लगता है 
तो सूरज चुप चाप 
कहीं छुप जाता है 
कल की तैयारी में  कि 
फिर रौशनी होगी 
फिर जीवन में उमंगें होगी ....

मैं भी दिन भर की 
अन्तहीन परेशानियों के बीच 
अपने बिस्तर पर लेटा 
सलवटों को गिनता 
दिन के उहापहो के बिच 
निंदिया को न्योता देता लेटा  हूँ 
निंदिया आँखों से छिटककर 
दूर कुर्सी पर बैठी 
बड़ी अजीब नज़रों से देखती 
मुझ पर हंसती, कहती है 
दिन भर की कर्कशता 
विवशता, द्व्न्दता , लालसा 
में डूबी इन आँखों में 
मैं नहीं आ  सकती 
मुझे चाहिए सकून, शान्ति 
निश्चलता, प्रेम ....

मैं अपने आप को 
धिक्कारता, कचोटता 
लेटा 
धीरे - धीरे  शांत हो जाता हूँ 
और 
निंदिया धीरे से 
आँखों में  समा  जाती है 
पलखें अपना काम कर जाती हैं 

एक और दिन का 
दरवाजा बंद हो जाता है 
आने वाले कल के लिए ................. 

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

कभी छावं कभी धुप  कहाँ  ये दिन बदलता है ......
समय के बदलने से मिजाज़ बदलता है ....

बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

दिखावा

बाहर  से जुड़ने  में हम तुम भीतर बेहद  टूटे  हैं ...
ऐसे में भी लोग  न  जाने हमसे  क्यूँ  रूठे  हैं .....
सबको   खुश  रखने में हमने न  जाने क्या क्या दर्द सहे ..
कहने को तो कह सकते थे लेकिन हम खामोश रहे .....
ख़ामोशी क्या समझेंगे वो जो बातों  के भूखे हैं ....
आंसू तो पवित्र हें लेकिन होंठ सभी के झूठे है ......
जिसको चाहा दिल से चाहा शायद यही गुनाह हुआ ....
में तो हुआ समर्पित लोग कहें गुमराह हुआ ....
हर सच्चाई शरमाई सी हम सब कितने झूठे हैं ....
बाहर  से जुड़ने  में हम तुम भीतर बेहद  टूटे  हैं ...





सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

 फिर हवा अपना तेवर बदलने लगी लगी ...
देखकर एक दिए को मेरे हांथ में ...
अपनी पहचान अब मुमकिन नहीं ...
घिर गए हैं हम कुछ ऐसे हालत में ...

शुभ संध्या दोस्तों ......

शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

ये जमीं .....

 देखती   रहती है  यूँ  ही  हर  रोज ...
आसमां  की तरफ  बेमतलब  जमीन ...
हमारा  इतिहास बन  जाएगी दब जायेंगे ..
सब यहीं फिर भी चुप रहेगी  ये जमीं ....
मतलबी  इन्सान ने  ये क्या क्या  किया ..
अपने लिए बेच डाली  सारी जमीं ....
कंक्रीटों के जंगल में न  बच पाई जमीं ...
हे भगवान तुझे मालूम होगा ....
कितनी , किसको चाहिए ये जमीं ...
अपने दिल का बोझ न संभाल सकी ...
तो आसमां को किस तरह संभाले  ये जमीं .....


अरे !! शर्म करो  !! बर्तन ही बेच  लो मुरादाबाद में  कम  से कम जमी  तो छोड़ दो .......