शनिवार, 9 अगस्त 2014

कल तो कल है ....

आज बुरा है !!!
तो क्या हुआ ...
कल अच्छा होगा
बहुत सुना है
बहुत गुना है
कल जरूर अच्छा होगा
और हम भागते रहे
उसी कल की  ओर
उसी अच्छे की ओर
रोज सपने देखते रहे
सँजोते रहे
बुनते रहे, गुनते रहे ...
उस अच्छे के लिए
एक एक दिन गुजरता रहा
हम इत्ते से उत्ते भी हो गए
और कल हमेशा
कल ही रहा ....
दौड़ता रहा... भागता रहा
हुयी रात तो सबेरा भी हुआ
मगर न आया
तो वो सुनहरा कल ...
समय बदला, दिन बदला
जगह बदली, लोग बदले
यहाँ तक कि हम भी बदले
लेकिन न मिला तो केवल वो कल
और आज को हम
कभी भी जी न सके
इस कल के भंवर मे
उस स्वप्न के सफर मे
उम्र के इस पड़ाव मे
जल कल कुछ नहीं है ...
तो आज को देखता हूँ
तो आज मे भी कुछ नहीं पाता हूँ
बहुत थक गया हूँ
इस कल के चक्कर मे
आज ही मे जीवन है
कल का क्या ...
कल तो कल ही है ....
आए न आए ...







रविवार, 3 अगस्त 2014

मनन ...

डरी, सहमी सी लगती है
अंदर जो आवाज है
जिसे अन्तरात्मा कहते हैं
वो चुप है
इस निःशब्द वातावरण मे
वह चीख बनके
निकलेंगे कब ?
जिंदगी, आखिर ....
शुरू होगी कब ?
खुले मन से हँसी
आएगी कब ?
कब खिलखिलाकर
सच सच कहूँ तो
दाँत निपोर कर
आखिर हँसेंगे कब ?
बरसों से इस जाल मे बंधी
उसी राह पर चलते – चलते
आखिर हम बदलेंगे कब ?
थोड़ी आस,
थोड़ा विश्वास
धीरे धीरे पिघलता मन
आखिर कितना बचेगा ?
डर है मुझे ...
इस मुखौटे को पहनकर
दिखावा कर के
मेरा धीरज न टूट जाए
स्वयं ही स्वयं के
सृजन को आखिर
बचाऊँ मे क्यूँ ?
कल आखिर बस
इस जहां में एक
किस्सा रह जाऊंगा ...
इतिहास बन जाऊंगा ...
अपने ही अक्स में
अपनी को ही मार डालूँगा
आखिर क्यूँ ?....