डरी, सहमी सी लगती है
अंदर जो आवाज है
जिसे अन्तरात्मा कहते हैं
वो चुप है
इस निःशब्द वातावरण मे
वह चीख बनके
निकलेंगे कब ?
जिंदगी, आखिर ....
शुरू होगी कब ?
खुले मन से हँसी
आएगी कब ?
कब खिलखिलाकर
सच सच कहूँ तो
दाँत निपोर कर
आखिर हँसेंगे कब ?
बरसों से इस जाल मे बंधी
उसी राह पर चलते – चलते
आखिर हम बदलेंगे कब ?
थोड़ी आस,
थोड़ा विश्वास
धीरे धीरे पिघलता मन
आखिर कितना बचेगा ?
डर है मुझे ...
इस मुखौटे को पहनकर
दिखावा कर के
मेरा धीरज न टूट जाए
स्वयं ही स्वयं के
सृजन को आखिर
बचाऊँ मे क्यूँ ?
कल आखिर बस
इस जहां में एक
किस्सा रह जाऊंगा ...
इतिहास बन जाऊंगा ...
अपने ही अक्स में
अपनी को ही मार डालूँगा
आखिर क्यूँ ?....
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