तीन दिन पहले से ही
सच कहूँ तो एक हफ्ते पहले से ही
पच्चईयाँ (नाग पंचमी) का
इंतजार रहता था ....
एक एक दिन किसी तरह
से काटते हुये
आखिर, पच्चईयाँ आ ही जाती थी
पच्चईयाँ वाले दिन
सुबह ही सुबह
अम्मा पूरा घर
धोती थी, हम सब को कपड़े
पहनाती थी
सुबह सुबह ही
गली मे
छोटे गुरु का बड़े गुरु का नाग लो भाई नाग लो
कहते हुये बच्चे नाग बाबा
की फोटो बेचते थे
हम वो खरीदकर
बड़े करिने से घर के हर दरवाजे पे
रसोई घर मे
चिपकाते थे
अम्मा फिर दूध और खिल से
नाग बाबा की पूजा करती थी ....
बड़ा मजा था पच्चियाँ का
बड़ा मजा था पच्चियाँ का
दोपहर को अम्मा
दाल भरी पूड़ी बनाती थी
शाम होते होते हम
निकल पड़ते थे
आखाडा की तरफ कुश्ती का आनंद
लेने के लिए
कसा हुआ शरीर,
तेल से चमचमाता हुये
पहलवानों को देखकर
मन रोमांचित हो जाता था
क्या कहने थे
पच्चईयाँ के
क्या बात थी उन दिनों की
आज कब नाग पंचमी आती है
और कब गुजर जाती है
पता ही नहीं चलता
साँप तो आज भी है
और कई तो आस्तीन के साँप भी है
अब कोई नहीं
बेचता उनकी फोटो ये कहते हुये
बड़े गुरु का छोटे गुरु का नाग लो भाई नाग लो
जीवन तो गुजर ही रहा है
साँपों के बीच मे ....
नागों के बीच मे...