शाम हो रही है
सूरज का तेज अब
मध्यम होता जा रहा है
शाम और खेल
का बड़ा अनूठा
सायोंग है
अब बस याद ही है
खेल और उसका खेला की
एक खेल था
ऊंच-नीच
समान्यतः यह खेल घर
के आँगन मे ही
खेलते थे, चबूतरे पर
नाली की पगडंडियों पर
हम सब ऊपर रहते थे
और चोर नीचे
हमे अपनी जगह बदलनी होती थी
और चोर को हमे छूना होता था
अगर छु लिया तो
चोर हमे बनना होता था
बड़ा मजा था
कई बार तो हम जान बूझकर
चोर बन जाया करते थे
मज़े के लिए
आखिर खेल ही तो था
आज भी ऊंच-नीच का खेल
खेल रहे हैं हम सब
वो ऊंच हैं वे नीच हैं
मगर आँगन मे नहीं
मन मे
खेल तो खेल है
और उसका अपना मज़ा है ...
Bhaut Khoob.......
जवाब देंहटाएंलो जी बन गया पानी से चलने वाला इंजन !
manojbijnori12.blogspot.com
आभार Manoj Kumar जी आपके भावपूर्ण टिप्पणी के लिए
हटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, जीना सब को नहीं आता - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार ब्लोंग बुलेटिन कि आपने मुझे जगह दी ...
हटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार सु-मन(Suman Kapoor) जी आपकी टिप्पणी के लिए ॥ .
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