मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

आशा

दिन की थकान के बाद
जब अँधियारा 
रौशनी से जितने लगता है
तो सूरज  चुप चाप  
कहीं छुप जाता है
कल की तैयारी में कि
फिर रौशनी होगी
फिर जीवन में उमंगें होंगी
में भी दिन भर की
अंतहीन परेशानियों  के बीच
अपने बिस्तर में लेटा
सलवटों को गिनता
दिन की उहापहो के बीच 
निदियाँ   को न्योता देता 
लेटा हूँ
निदियाँ आँखों से छिटक कर
दूर कुर्सी पर बैठी
बड़ी अजीब निगाहों से देखती
मुझ पर हंसती 
कहती है...
दिन भर की कर्कशता, विवशता 
द्व्न्दता, लालसा 
में डूबी इन आँखों में 
में नहीं आ सकती 
मुझे चाहिए सकून, शांति 
निश्चलता और प्रेम ...
में अपने आप को धिक्कारता, कचोटता 
वही पर लेटा लेटा 
धीरे धीरे शांत हो जाता हूँ 
और न जाने कब निदियाँ धीरे से 
मेरी आँखों में समां जाती है 
एक और दिन का दरवाजा बंद हो जाता है...
कल के लिए.... कल के लिए ...



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