सोमवार, 7 मार्च 2011

आज की बात

आज हवाओं का रुख कुछ थम सा गया है
उसको फिर से कुछ याद आ गया है
धुप मैं वो तपन भी नहीं है
फिजां मैं वो लहर भी नहीं है
यूँ तो यह बात पुरानी है
जख्म तो नया है पर टीस पुरानी है
चेहरे लेकर चलते है कई लोग यहाँ
अब उनको अपना कहना यार बेमानी है
आंगन की घासें वही हरी भरी है
पर जगह जगह नागफनी उग रही है
सुनी पड़ी है हर कब्र इन दिनों
लोशों को डर है कैद न हो जाएँ इन दिनों....

1 टिप्पणी:

  1. ये शब्द भी क्या चीज हैं यार, जो मन कि भावनाओं को कभी कभी अभिव्यक्त करने मैं असमर्थ होते हैं ... या मेरा शब्दकोष बहुत सीमित है इसलिए इस गूढ़ काव्य रचना के समादर मैं मेरी मौन अभियक्ति को आप जैसा काव्य का मर्म समझने वाला व्यक्ति ही समझ सकता है......

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