बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

भूल





धुएं में घुट सा जाता हूँ..

फिर भी जिये जाता हूँ..

कहने को चाँद हैं, तारे हैं ..

बेकार आधारों पर जिये जाता हूँ..

सामाजिक बंधनों के नागफनी के कांटे हैं..

उतने ही चूभ जाते हैं जितना निकालता हूँ..

मिथ्या आश्वासन है ..

फिर भी विश्वास किये जाता हूँ..

हवा नहीं है फिजाओं में ...

फिर भी सांस लिए जाता हूँ..

उसकी आस में जिये जाता हूँ..

यही इक भूल किये जाता हूँ..







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