सोमवार, 15 नवंबर 2010

मुठी मैं रेत

यूँ ही
सड़क के किनारे
पुलिया पर बैठा
आते जाते लोगों को देखता
अपनी मगन मैं
मस्त बैठा, जिन्दगी के तमाम
सवालों पर खुद मुस्कराता
कभी इठलाता सोचता
तभी, अचानक
सएकिल सवार आता दिखा
लिया था कुछ सामान
पीछे था तेल का कनस्तर
चला जा रहा था अपनी मस्ती मैं
आज शाम बच्चों के साथ
खायेंगे पकोड़ी
और भी बहुत कुछ
तभी भाग्य मुरा
हवाओं ने रुख बदला
और वो गिर पड़ा
गिरते ही अरमान चूर चूर हो गए
आलू, टमाटर, प्याज
सड़क पर बिखेर गए
वो व्यक्ति उसे बड़ी
उदासी से देख रहा था
क्या बटोरे, कैसे इकट्ठा करे
शाम हो चुकी है
बच्चे इंतजार कर रहे हैं
आज वो क्या खिलायेगा
जिन्दगी यूँ ही बिखर जाएगी
ये मालूम न था
तेल का कनस्तर
लुढका हुआ था
तेल बहकर सारा फैला हुआ था
वो दोनों हाथों से उसे
उठाने का असफल प्रयास
मैं लगा था
जिन्दगी देखते देखते
यूँ ही सरक रही थी
शाम हो चुकी थी
वो पुलिया पर बैठा
ये सब देख रहा था ..................

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