मंगलवार, 2 जुलाई 2013

रविवार.....

कल रविवार था ... 
फिर उदास, सूनी शाम थी ... 
देख रहा था
हल्की बारिश जो 
सब कुछ भिगो रही थी 
सामने पंछी रोशनदान 
मे छिपने का प्रयास कर रहे थे 
हवाएँ तेज चल रहीं थी 
जो आँधी, रुकने के बाद भी 
आँधी चलने का एहसास करा रही थी 
मैं खड़ा अपने आपको खोज रहा था 
सब कुछ फैला हुआ, तितर बितर था 
अतीत के पन्ने अब भी 
हवा मे तैर रहे थे 
कुछ गीले, कुछ फटे 
कुछ बिखरे पड़े थे 
सब कुछ ठहर गया था 
बारिश भी ... 
यह रोज होता है 
रोज आँधी आती है 
रोज बारिश होती है 
रोज अपने आपको खोजता हूँ
लेकिन यह उस दिन ज्यादा होता है
जब....
जब रविवार आता है .... 
(रविवार को मेरी माँ ने हम सभी को भौतिक रूप से अलविदा कहा था ... )

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