यूं हीं
सड़क के किनारे
पुलिया पर बैठे बैठे
आते जाते लोगों को देखता
अपनी मगन मे
मस्त बैठा
जिंदगी के तमाम
सवालों पर
खुद ही मुस्कराता
कभी इठलाता
सोचता, तभी
अचानक
साइकिल सवार आता दिखा
लिया था कुछ समान
पीछे था तेल का कनस्तर
चला जा रहा था
अपनी मस्ती मे
आज शाम बच्चों के साथ
खाएँगे पकोड़ी
और भी बहुत कुछ
तभी भाग्य ने पलटा मारा
हवाओं ने रुख पलटा
और वो गिर पड़ा
गिरते ही सारे
अरमान चूर चूर हो गए
आलू, टमाटर, प्याज और आटा
सड़क पर बिखर गए
वो व्यक्ति उसे बड़ी
उदासी से देख रहा था
क्या बटोरे
कैसे इकठ्ठा करे
शाम हो चुकी है
बच्चे इंतजार मे हैं
आजों वो क्या खिलाएगा ....
ज़िंदगी यूं ही बिखर जाएगी
उसे मालूम न था
तेल का कनस्तर
लुढ़का हुआ था
तेल बहकर सारा फैला हुआ था
वो दोनों हाथों से उसे उठाने
की असफल कोशिश
मे लगा था
जिंदगी देखते देखते
यूं ही सरक रही थी
शाम हो चुकी थी
वो पुलिया पर बैठा बैठा
ये देख रहा था .....
डायनामिक
जवाब देंहटाएंसुन्दर एवं सोचनीय आपकी रचना !
achchi rachna hai
जवाब देंहटाएंभैया जी अच्छी कविता हैं,
जवाब देंहटाएं