शनिवार, 11 जुलाई 2015

मुट्ठी मे रेत

यूं हीं
सड़क के किनारे 
पुलिया पर बैठे बैठे 
आते जाते लोगों को देखता 
अपनी मगन मे 
मस्त बैठा 
जिंदगी के तमाम 
सवालों पर 
खुद ही मुस्कराता 
कभी इठलाता 
सोचता, तभी 
अचानक 
साइकिल सवार आता दिखा
लिया था कुछ समान 
पीछे था तेल का कनस्तर 
चला जा रहा था 
अपनी मस्ती मे 
आज शाम बच्चों के साथ 
खाएँगे पकोड़ी 
और भी बहुत कुछ 
तभी भाग्य ने पलटा मारा 
हवाओं ने रुख पलटा 
और वो गिर पड़ा 
गिरते ही सारे 
अरमान चूर चूर हो गए 
आलू, टमाटर, प्याज  और आटा
सड़क पर बिखर गए 
वो व्यक्ति उसे बड़ी 
उदासी से देख रहा था 
क्या बटोरे 
कैसे इकठ्ठा करे 
शाम हो चुकी है 
बच्चे इंतजार मे हैं 
आजों वो क्या खिलाएगा ....
ज़िंदगी यूं ही बिखर जाएगी 
उसे मालूम न था 
तेल का कनस्तर 
लुढ़का हुआ था 
तेल बहकर सारा फैला हुआ था 
वो दोनों हाथों से उसे उठाने 
की असफल कोशिश 
मे लगा था 
जिंदगी देखते देखते 
यूं ही सरक रही थी 
शाम हो चुकी थी 
वो पुलिया पर बैठा बैठा 
ये देख रहा था ..... 

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