गुरुवार, 1 अक्तूबर 2015

बड़े पापा

बड़े पापा के जाने के बाद भी
मैं सुन सकता हूँ उनकी खाँसती आवाज
और उस आवाज के साथ
रेल की  आवाज भी
वह मरफ़ी का ट्रांजिस्टर
आलमारी मे लगा हुआ और
उनका उसपर आकाशवाणी का समाचार
बाहर आँगन मे लगे पौधे
पीछे उगी कुछ सब्जियाँ, पपीते के पेड़
अमरूद मे पानी लगाने की चिंता
सुबह सुबह अखबार का आना
और चाय के साथ उसका बांचना
और कभी कभी  .... हमारा
इम्तहान ....
जिंदगी के शाम को सुबह का इंतजार
वो रात को दूध का ग्लास
दावा का डिब्बा
वह सुबह .... वह आँगन ...
अमरूद का पेड़
नींबू का पौधा, तुलसा का पेड़
वह भूरा, वह कल्लू ...
जैसे जूठन पर अधिकार जामाता  कुत्ता
जिसकी आँखों मे हिंसा कम प्यार ज्यादा
बैठा रहता था बाहर वाले
दरवाजे पर ... चौकन्ना
अब तो बड़े पापा की स्मृतियाँ ही शेष रह गई
बरामदे मे रखा शीशम का तख़्ता
कमरे मे रखा वो पुराना पलंग
दिमाग मे अभी भी सहेज कर रखा है
उनकी कुर्सी, उनकी तकिया
अभी भी है सहेजा रखा दिमाग के पटल पर
हाँ एक तोता भी था
वो तोता भी उड़ गया कहीं
वह पिंजड़ा भी खाली है ....
यह स्मृति है .... स्मृति का क्या
अब तो स्मृति ही शेष बची है
चलो अब यहाँ से ....
कल अपनी भी बारी होगी
कुछ ऐसी ही तैयारी होगी.....

पित्र पक्ष पर बड़े पापा को मेरा चरण स्पर्श ... 

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